गीताभागवतकथा - अध्याय 1 का पूर्ण विवेचन
भागवत गीता का पहला अध्याय "अर्जुन विषाद योग" के नाम से प्रसिद्ध है। इस अध्याय में अर्जुन के मानसिक और भावनात्मक संकट का वर्णन किया गया है, जो उसे युद्ध भूमि पर कुरुक्षेत्र में अपने कुटुंबीयों, गुरुजन, और मित्रों के खिलाफ युद्ध करने की स्थिति में उत्पन्न होता है। यहाँ हम प्रत्येक विषय का विस्तार से विवेचन करेंगे:
1. कुरुक्षेत्र का युद्ध:
कुरुक्षेत्र युद्ध का प्रारंभ होने वाला था, और दोनों पक्ष—पाण्डव और कौरव— एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार थे। कुरुक्षेत्र, जो एक पवित्र भूमि थी, अब युद्ध भूमि में बदल गई थी। युद्ध के मैदान में दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं।
अर्जुन ने अपनी गाड़ी का रुकवाया और श्री कृष्ण से आग्रह किया कि वे उसकी रथ को युद्ध भूमि में दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कर दें ताकि वह अपने रिश्तेदारों और मित्रों को देख सके। अर्जुन ने देखा कि कौरव पक्ष में उसके दादा भी हैं, गुरु भी हैं, चचेरे भाई भी हैं, और मित्र भी हैं। यह दृश्य उसे मानसिक रूप से असमंजस में डाल देता है।
2. अर्जुन का मानसिक संकोच:
अर्जुन की मनोस्थिति को इस अध्याय में विस्तार से चित्रित किया गया है। वह शत्रु पक्ष में अपने सगे-सम्बंधियों को देखकर न केवल शोकित होता है, बल्कि युद्ध करने के विचार से उसकी आत्मा हिल जाती है। उसे यह युद्ध धर्मयुद्ध के बजाय एक विनाशकारी घटना लगने लगता है।
अर्जुन का यह द्वन्द्व और विषाद उसकी स्थिति को और भी कठिन बना देते हैं। वह समझने में असमर्थ होता है कि उसे क्या करना चाहिए। वह युद्ध में शामिल होने के बजाय अपने परिवार और गुरुजन के साथ अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहता है। उसकी मानसिक स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि वह अपना धनुष और बाण भी छोड़ देता है और युद्ध से भागने की इच्छा व्यक्त करता है।
अर्जुन के शब्दों में यह स्पष्ट होता है कि वह खुद को न तो शत्रु के खिलाफ खड़ा करने में सक्षम मानता है और न ही अपने कर्मों को उचित मानता है। वह अपने कर्तव्यों के बीच घिरा हुआ महसूस करता है और पूरी तरह से विह्वल हो जाता है।
3. श्री कृष्ण का शांति दायिनी दृष्टिकोण:
अर्जुन की विषादपूर्ण स्थिति को देख श्री कृष्ण उसे समझाने की कोशिश करते हैं। श्री कृष्ण का उद्देश्य अर्जुन को उसके कर्तव्यों की याद दिलाना है। वे उसे बताते हैं कि आत्मा अमर होती है और शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि यह युद्ध धर्म की रक्षा के लिए है, और इसे लड़ा जाना चाहिए, क्योंकि इसमें कोई अन्य विकल्प नहीं है। यदि अर्जुन युद्ध से बचने की कोशिश करता है तो वह अपनी कर्तव्यच्युतता का कारण बनेगा, और इसके परिणामस्वरूप उसे पाप लगेगा।
श्री कृष्ण यह भी बताते हैं कि जो लोग अर्जुन के परिवार में हैं, वे पहले से ही मृत्यु के मार्ग पर हैं, और अर्जुन को अपने कार्य को धर्म के अनुसार निष्पक्ष रूप से करना चाहिए। श्री कृष्ण का संदेश यह है कि अर्जुन का मुख्य कर्तव्य इस समय अपने धर्म का पालन करना है, और इसे युद्ध के रूप में पूरा करना है।
4. अर्जुन का अंतिम निर्णय और श्री कृष्ण का उपदेश:
अर्जुन का मन पूरी तरह से भ्रमित हो चुका था, और उसे अपने भीतर कोई सही मार्ग नहीं दिखाई दे रहा था। उसने श्री कृष्ण से कह दिया कि वह अब युद्ध नहीं करेगा। वह पूरी तरह से श्री कृष्ण की शरण में जाकर उनका मार्गदर्शन चाहता था।
यहाँ श्री कृष्ण का उपदेश आरंभ होता है, जो आगे के अध्यायों में विस्तार से दिया जाएगा। श्री कृष्ण ने अर्जुन को शरणागत भाव से ध्यानपूर्वक गीता का उपदेश देना शुरू किया। उन्होंने अर्जुन को यह समझाने की कोशिश की कि जीवन का उद्देश्य केवल शारीरिक युद्ध नहीं है, बल्कि यह आत्मज्ञान, धर्म, और परम सत्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर होना है।
अर्जुन की स्थिति पहले अध्याय के अंत तक ऐसी हो जाती है कि वह पूरी तरह से श्री कृष्ण की शरण में चला जाता है, और इस शरणागत भाव से गीता का उपदेश आरंभ होता है।
निष्कर्ष:
गीताभागवतकथा के पहले अध्याय में हमें अर्जुन के मानसिक विषाद, संकोच और उसके अंदर उत्पन्न होने वाली नैतिक दुविधा का चित्रण मिलता है। श्री कृष्ण का उत्तरदायित्व इस अध्याय में अर्जुन को शांति और ज्ञान प्रदान करना है, ताकि वह अपने कर्तव्य का पालन कर सके। इस अध्याय में दी गई शिक्षा यह है कि जीवन में कठिनाइयाँ आना स्वाभाविक है, लेकिन सही मार्गदर्शन और सही दृष्टिकोण से हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं।